Tuesday, August 25, 2009

ऐसा क्यों है ?

मैं समझ नही पा रही हूँ कि ऐसा क्यों है ?
संगीत के क्षेत्र में लोक संगीत को समाज में इज्जत है। समारोह और सम्मेलनों में लोग इसे सराहते हैं , पसंद करते हैं। सिनेमा संगीत में इसकी लोकप्रियता का जवाब नही है। नौशाद, सचिनदेव बर्मन, ओ पी नैय्यर ने तो लोक संगीत के बल पर लोकप्रियता के झंडे गाड़ दिए हैं। नए संगीतकारों में रहमान, भारद्वाज,... भी इस मामले में पीछे नही है। बोलों (गीत) के मामले में तो गीतकारों ने लोकगीत ही उठा लिए हैं। लोकगायकी का लोहा कौन नही मानता? ठुमरी, चैती, होरी, कहरवा, निर्गुण, सभी ने शास्त्रीय संगीत में अपनी खास जगह बना ली है। नाटकों में भी लोककथा, लोकवाद्य, और लोकजीवन को इज्जत का स्थान है। हबीब तनवीर को कौन नहीं जानता? कविता, कहानी, उपन्यास, और पटकथाओं में लोकभाषाओं का प्रचुरता से इस्तेमाल हो रहा हैं और लोग इनके दम-ख़म और अभिव्यक्ति की समृद्धता के कायल हैं। फणीश्वर नाथ रेणु ने हिन्दी साहित्य में जो रास्ता खोला वह आज बहुत चौड़ा हो चुका है और उस पर चलने वाले साहित्यकारों की एक बड़ी संख्या हैं और वे लोकप्रिय भी हैं। शिल्प की दुनिया में तो लोककला का सानी नही है। फैशन की दुनिया में लोकशिल्प को ऊंचा मान है। कपड़े की बुनाई, रंगाई, छपाई, कसीदाकारी; फर्नीचर के डिजाईन, घरों की बनावट और सजावट, सब में लोककला की बड़ी इज्जत है।

साइंस और टेक्नोलॉजी वाले न जाने किस हीन भाव से पीड़ित हैं? जब कला की दुनिया सार्वजनिक तौर पर लोककला (यानि कला क्षेत्र का लोक ज्ञान) को प्रतिष्ठा दे रही है तो साईंस /टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में यह क्यों नही हो पा रहा है ? एग्रीकल्चर साइंटिस्ट किसान के ज्ञान को कोई तवज्जो नही देता, टेक्सटाइल इंजिनीयर बुनकर को गंवार समझता है। मिट्टी, लोहा, लकड़ी, धातु-अधातु, प्लास्टिक से तमाम तरह की चीजें बनाने वाले कारीगर इन इंजिनीयरों की नज़र में महज़ मजदूर हैं। साइंस /टेक्नोलॉजी के पढ़े लोगों की नज़रों में पहाड़, नदी और जंगलों में रहने वाले लोग महज़ प्राणी (जंगली ) हैं ! लोक के साथ ज्ञान का लेन-देन करने में न जाने क्यों ये साइंटिस्ट ख़ुद को अपमानित समझते हैं? क्या ये अंहकार है? या कोई और बात है?

यह सच है की डेवेलोपमेंट सेक्टर एन जी ओ के मार्फ़त बड़ी ऊंची आवाज़ में साइंस/टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में लोकज्ञान की वकालत कर रहा है। इनके कामों में गरीबी हटाने से लेकर तो पर्यावरण, प्रदूषण , स्वास्थ्य-रक्षा , सब समस्याओं में लोकज्ञान और लोकतक्नीक एक हल के रूप में सामने लाये जाते हैं। लेकिन इसमें दम नही है, क्योंकि एक तो इन संस्थाओं की भूमिका ही अलग हैं और दूसरा, ये साइंस/टेक्नोलोजी वाले लोग ही नही हैं। इनके कहने से क्या होगा?

यह सोचते समय इस बात पर ध्यान गया की कला क्षेत्र में संगठीत विद्या(शास्त्रीय ज्ञान ) और लोकविद्या में सतत एक रिश्ता रहा है, आपस में लेनदेन रहा है, एक दूसरे में सम्मिलित और समाहित होने की क्रियाएं होती रही हैं। दर्शन क्षेत्र के जानकार हमें बताते हैं की हमारे समाज में लोक और शास्त्र के बीच उल्टा रिश्ता नही रहा है। बल्कि लोक प्रचलन को एक आधारभूत कसौटी की मान्यता मिलती रही है। कुछ वर्षों पूर्व हिन्दी साहित्यकारों ने नामवर सिंह के जन्म दिवस के अवसर पर लोक और शास्त्र के बीच रिश्ते पर एक व्यापक बहस चलायी थी। अभी हाल ही में संगीत के क्षेत्र में 'देशी' और 'मार्गी' की अवधारणाओं के मार्फ़त लोक और शास्त्र के बीच के रिश्तों को जानने का मौका मिला। कपिला वात्सायन के एक लेख के अनुसार देशी और मार्गी में ऊंच-नीच का रिश्ता नही रहा है। बराबरी का रिश्ता रहा है। यह क्या था? कला मर्मज्ञ निहार रंजन राय के लेखन में भी यही बात उजागर होती है। तो क्या बात है की साइंस/टेक्नोलोजी में ऐसा कोई विचार नही हो पा रहा है।

हमारे यहाँ साइंस/टेक्नोलोजी की पढ़ाई विश्वविद्यालयों के साथ आई है और शुरू से ही इसने पूंजीवादी व्यवस्था के साथ कदम से कदम मिलाया है। भारत जैसे समाजों में साइंस/टेक्नोलोजी का ज्ञान शुरू से ही एक संगठीत ज्ञान के रूप में सामने आया। एक ऐसे संगठीत (शास्त्रीय ) ज्ञान के रूप में, जो लोकज्ञान की जान लेकर ही अपना साम्राज्य स्थापित करता है। शायद शास्त्रीय ज्ञान और लोकज्ञान के बीच इसतरह के उल्टे रिश्ते की शुरुआत साइंस ने ही की हो और इसी के चलते साइंस/टेक्नोलोजी के क्षेत्र का रुख लोकज्ञान के प्रति मैत्री का नही बन पा रहा हो। चूंकि हमारी शिक्षा का मूल्य साइंस आधारित रहा है इसलिए ज्ञान की अन्य धाराओं में भी यह मूल्य घुसपैठ कर चुका है। विश्वविद्यालय की भूमिका ही लोकज्ञान के विरोध की बन गई।

यह भी देखने को मिलाता है की कला, पत्रकारिता और मीडिया के क्षेत्र में विश्वविद्यालय की डीग्री को बहुत तवज्जो आज भी नहीं दी जाती। सिनेमा और नाट्य में तो अनेक कलाकारों के उदहारण मिलते हैं, जिन्होंने संगठीत शिक्षा हासिल ही नहीं की और जो कला की बुलंदियों तक पहुँचे। अधिकांश कलाकार विश्वविद्यालय के बाहर ही रहे हैं , समाज के बीच से सीख कर आए हैं। मनोरंजन की दुनिया में, जो आज एक फलता-फूलता क्षेत्र है , यह बात आम देखी जाती है। आन्दोलनों और जन संघर्षों में ऐसे उदाहरण हमेशा मिलते है जब कुशल नेतृत्व करने वाले संगठीत विद्या के बाहर से होते हैं । सॉफ्टवेर का क्षेत्र भी अब इसमें शामिल हो चुका है। ये सभी क्षेत्र विश्वविद्यालय के संगठीत ज्ञान पर एकाधिकार को नहीं मानते। इन क्षेत्रों में काबिल लोगों की खोज के लिए डीग्री का सहारा अक्सर बेअसर साबित होता है। ऐसे में साइंस और टेक्नोलोजी के जानकार कहाँ अटक गए हैं? वे क्यों कूपमंडूक बने हुए हैं?

भारत अन्तराष्ट्रीय स्तर पर एक नई शक्ति के रूप में उभर रहा है। क्या यह अपने समाज के एक बहुत बड़े हिस्से के ज्ञान भंडार को नज़रअंदाज़ कर के यह लक्ष्य हासिल कर पायेगा?

चित्रा सहस्रबुद्धे

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