पिछले कुछ दिनों से देश के प्रकट राजनैतिक पटल पर तेज़ी से बदलाव हुए हैं। एक तरफ़ नाभिकीय करार से चलते प्रभावी राजनैतिक दलों के आपसी संबंधों में उलटफेर हुए हैं, तो दूसरी तरफ़ आम चुनाव पास आने के चलते छोते दलों और समूहों में भी गति आई है। पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया अमेरिका की राजनीति के केन्द्र में नज़र आते हैं। करार ने अमेरिका के साथ सामरिक समझौते का जो आधार बानाया है वह इस देश और इस इलाके की बर्बादी के नए रास्ते खोलता है। अमेरिका इसके ज़रिये इस्लामी उग्रवाद का मुंह अपनी ओर से मोड़कर हिन्दुस्तान की ओर करता है। इस्लामी उग्रवाद द्वारा भारत को लक्ष्य बनाकर हमलों की घटनाएं बढती जा रही हैं।
इस सबके चलते गरीब वर्गों की दशा और दिशा की चर्चा से ध्यान हटता है। बुनियादी राजनीति के कार्यकर्ता गरीब वर्गों की स्थिति को हमेशा केन्द्र में बनाकर रखते हैं। शहरी गरीबों का विस्थापन, किसानों की आत्महत्याएं तथा उनकी ज़मीनों का अधिग्रहण एवं विस्थापन और महंगाई बढ़ाने वाली नीतियाँ बदस्तूर जारी हैं। शासक वर्ग राजनैतिक समीकरणों और व्यवस्थाओं में बदलाव के मार्फ़त वैश्वीकरण, निजीकरण, और उदारीकरण में तेज़ी लाने की तैयारी कर रहे हैं। दूसरी ओर सांप्रदायिक ताकतों का दोहरा खेल जारी है। समाज में बिखराव और आपसी संघर्ष को बढ़ाने का कार्य वे पहले की ही तरह कर रहे हैं। बुनियादी राजनीति के कार्यकर्ताओं को उन सैध्दांतिक चौखटों की भी खोज है जिनकी सहायता से इन परिस्थितियों में गरीब वर्गों के दृष्टिकोण को सामने लाया जा सकता है। ज्ञान की राजनीति शायद ऐसी चौखट बनने का रास्ता खोलती है। यहाँ इसी को संक्षेप में रखने की कोशिश है।
२१ वीं सदी के शुरुआत के साथ औद्योगिक युग समाप्त हो चुका है और सूचना युग शुरू हुआ है। कहा जा रहा है कि एक ज्ञान आधारित समाज बन रहा है। हम देख रहे हैं की इस युग में सूचना उद्योग (टी.वी., मोबाइल, कम्प्यूटर-इन्टरनेट, आदि) सबसे तेज़ी से फल-फूल रहे हैं और अमेरिका के साम्राज्य की जड़ों को सींच रहे हैं। दूसरी तरफ़ छोटे-छोटे उद्योग-धंधे और खेती उजड़ रहे हैं और इनसे जुड़े लोग आत्महत्या कर रहे हैं। जो युवक कम्प्यूटर-इन्टरनेट पर बहुत कुशलता के साथ अंग्रेज़ी में काम कर रहे हैं केवल उन्हें ही मोटे वेतन मिल रहे हैं और शेश नवजवानों के लिए सम्मान लायक रोज़गार के रास्ते बंद होते जा रहें हैं। इस ज्ञान आधारित सूचना युग में मोटे तौर पर निम्नलिखित तरीकों से सामान्य लोगों को ज्ञान से दूर करने की व्यवस्था बनती देखि जा सकती है।
• शिक्षा महंगी है। यानि सामान्य लोगों से ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार छीना जा रहा है।
• ज्ञान की ज़्यादातर गतिविधियाँ कम्प्यूटर-इन्टरनेट पर होने जा रही हैं और वे अंग्रेज़ी में हैं। यानि कम्प्यूटर का ज्ञान आम जनता की पहुँच के बाहर है।
• लोकविद्या (किसानी, कारीगरी, वन्यिकी, स्वास्थ्य रक्षा, पालन पोषण आदि लोक-आधारित ज्ञान) को आर्थिक-सामाजिक मूल्य बहुत कम दिया जा रहा है। यानि आम लोगों के पास जो ज्ञान है उसका शोषण हो रहा है।
• लोकविद्या पर कब्ज़ा किया जा रहा है। पेटेंट बनाकर और कम्प्यूटर में संग्रहित कर लोकविद्या पर पूंजीपतियों का कब्ज़ा स्तापित हो रहा है।
• शिक्षा, बाज़ार, प्रशासन, और सेवा (डाक, बैंक, पुस्तकालय, खबरें, शोध, सूचना, आदि) कम्प्यूटर-इन्टरनेट पर स्थानांतरित हो रहें हैं। यानी सार्वजनिक सेवाएं गरीब समाज से दूर हो रही हैं।
कहने को तो यह ज्ञान आधारित सूचना युग है, किंतु वास्तव में यह ज्ञान पर कब्जे और उसके शोषण पर आधारित सूचना युग है। इसलिए आम आदमी की ज़िन्दगी जीने के लायक बने, समाज में न्याय की स्थापना हो और सभी नौजवानों को आगे बढ़ने के मौके मिलें इसके लिए एक ज्ञान की राजनीती खड़ी होना ज़रूरी है। इसकी पहली शर्त है की ज्ञान को पूंजीपतियों के कब्जे और शोषण से मुक्त किया जाय।
वाराणसी में शुरू किए गए ज्ञान मुक्ति अभियान की प्रमुख मांगे निम्नलिखित हैं-
• कम्प्यूटर हिन्दी में हो।
• गाँव-गाँव में मीडिया स्कूल हो।
• कृशि उत्पादन को वाजिब दाम मिले।
• घर-घर में उद्योग हो।
• स्थानीय बाज़ार को संरक्षण हो।
• लोकविद्या को शिक्षा में शामिल किया जाय।
• उच्च शिक्षा के दरवाज़े सबके लिए खुले हों।
ज्ञान मुक्ति अभियान जगह-जगह पर नौजवानों के ज्ञान शिविर चला कर इस विषय पर नौजवानों को नई समझ से लैस कर रहा है। आगामी आमचुनाव में उपरोक्त मांगों को सार्वजनिक बनाने के लिए बुद्धिजीवियों, विचारकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, किसान-कारीगर संगठनों को खुलकर सामने आना चाहिए।
चित्रा सहस्रबुद्धे
Sunday, September 7, 2008
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